tag:blogger.com,1999:blog-88184248531136171722024-03-13T06:56:01.770-07:00NATURENATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-34865077204145617182010-07-12T04:45:00.001-07:002010-07-12T05:26:50.094-07:00ठान लो तो क्या संभव नहीं<div><a href="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/TAoeNuFEjUI/AAAAAAAAADM/BYif6nFJZcA/s1600/DSC_1559.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5479225117706063170" style="margin: 0px auto 10px; display: block; width: 400px; height: 268px; text-align: center;" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/TAoeNuFEjUI/AAAAAAAAADM/BYif6nFJZcA/s400/DSC_1559.JPG" border="0" /></a> <span> कोटा</span> के किशोर तालाब के दो अलग-अलग दृश्य<br /><br /><div><a href="http://2.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/TAoeNE39Y5I/AAAAAAAAADE/l5Ui6Gw266U/s1600/DSC_1485.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5479225106645214098" style="margin: 0px auto 10px; display: block; width: 400px; height: 268px; text-align: center;" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/TAoeNE39Y5I/AAAAAAAAADE/l5Ui6Gw266U/s400/DSC_1485.JPG" border="0" /></a><br /><br /><br /><br /><br /><div>हिन्दुस्तान के कुछ शहर तो वाकई बहुत ही खूबसूरत व अत्यन्त ही व्यवस्थित तरीके से बसे हैं। वहीं कुछ शहर तो मानो गंदगी के पर्याय हैं। प्रकृति ने हमें जिन्दगी नाम का एक अनुपम उपहार दे रखा है। इस उपहार का उपयोग हम कैसे करते हैं, यह हमीं पर निर्भर <span>हैं। </span>हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी को अपने-अपने ढंग से बेहतर बनाने की कोशिश करता है। कुछ की कोशिश कामयाब रहती है तो कुछ नाकाम रहते हैं। नाकाम अक्सर वे ही होते हैं जो स्वार्थपूर्ण तरीके अपनाते हैं या गलत तरीके आजमाते हैं। कई बार हम अपने लिए न केवल पड़ोसी बल्कि पूरे शहर को नरक बना डालते हैं। इससे खुद की जिन्दगी तो उजाड़ होती ही है, पूरे शहर को नरक और बना देती है। </div><br /><div>पहले के आलेखों में मैंने बीकानेर व उदयपुर का जिक्र किया था। कोशिश करता हूं कि जहां मैं रहता हूं उसके बारे में ही कुछ कहूं। इस बार की गर्मियां कोटा में कटी। बारिश दे चुकी है। वैसे राजस्थान में पानी के लिहाज से कोटा सबसे सम्पन्न जिला है। यहां की चम्बल न केवल कोटा को, बल्कि दूसरे शहरों की प्यास भी बुझाती है। यहां का पानी दूसरे राज्यों की कमी भी पूरी करता है। कोटा से जुड़ाव मेरा बरसों से रहा है। खासतौर से पारिवारिक। मेरा पूरा परिवार कोटा से जुड़ा हुआ है। बचपन से यहां आना जाना रहा है, इसलिए यहां की हर जगह मुझे सदैव जानी-पहचानी व अपनी-अपनी सी लगती है। यहां के नारकीय हालात नहीं देखे जाते। कभी कोटा में घूमते थे तो सुखद अहसास होता था। हरे-भरे पेड़ों से लकदक रहा यह शहर अब उजाड़ हो चला है। यहां के तालाब खत्म होते जा रहे हैं। सरकार व प्रशासन इस मामले में बिल्कुल नकारा साबित हुए हैं। जनता भी कम नहीं है। कभी अन्याय के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाती। यहां के जनप्रतिनिधि यहां देवता की तरह पूजे जाते हैं। भले ही वे कुछ भी कर ले, जनता उन्हें पूरा सम्मान देती है। ये ही कारण है कि कोटा की बरबादी होती जा रही है</div><br /><div>इस शहर में एक अत्यन्त ही समृद्ध तालाब रहा है किशोर सागर। इसके किनारे बैठकर कभी ऐसा नहीं लगा कि सुकून नहीं मिले। लेकिन पिछले कुछ दशकों से इस तालाब की जो गत हुई है उससे बहुत निराशा होती है। यह तालाब इस शहर का हृदय है। इसी तालाब के किनारे बैठकर लोग सुबह ताजा हवा लेते रहे हैं। इसी तालाब के किनारे बैठकर लोग सुनहरे पल बिताते रहे हैं। ये वहीं तालाब है जिसके कारण कभी कोटा जाना पहचाना जाता रहा है। फिर क्यों एकाएक इसकी उपेक्षा शुरू हो गई? क्यों किसी ने इसकी सार-संभाल नहीं की? इस तालाब पर कहने को तो करोड़ों रुपए खर्च हुए हो, पर वे नजर ही नहीं आते। जनता मूक प्राणी की तरह सब झेलती रहती है।</div><br /><div>मैं जिस अखबार में काम करता हूं, जिन संस्थाओं से जुड़ा रहता हूं, जिन लोगों से जुड़ा रहता हूं वो अक्सर सामाजिक सरोकारों की बात करते है और उसी से अपने जीवन को सुंदर व उद्देश्यपूर्ण बनाते हैं। राजस्थान पत्रिका एक ऐसा अखबार है जो न केवल लोगों तक खबरें पहुंचाता है, बल्कि साल भर कोई न कोई ऐसे काम करता रहता है जिससे समाज को, व्यक्ति को राहत पहुंचे। मैं जहां भी रहा, मुझे राजस्थान पत्रिका जैसा मंच मिला। मुझे इस आदर्श मंच के जरिए कुछ काम करने का अवसर भी मिला। उदयपुर में मेरी टीम ने अमृतम् जलम् अभियान के तहत गत वर्ष जो काम पिछोला झील में किया था, उससे मेरे मन को बहुत संतुष्टि मिली। मैं उम्मीद करता हूं कि अब गणगौर घाट पर अधिक दिनों तक पानी रहेगा। लोगों को नौकायन से वंचित नहीं होना पड़ेगा। इससे पहले उदयपुर की टीम ने मदार नहर का काम भी किया था। ये कार्य वहां की जनता के सहयोग से संभव हुए, अन्यथा इतने बड़े पैमाने पर ये असंभव <span>था।<br /><br /></span>इस बार कोटा में अवसर मिला। वह भी एक शहर के हृदयस्थल किशोरसागरकी सेवा करने का इस विशाल तालाब किशोर सागर के पेटे में उतरे तो पता चला कि इसका काम वाकई कठिन है, लेकिन जिस तरह यहां के लोगों ने हाथ बढ़ाया, काम आसान लगने लगा। मात्र एक माह में कोटा के लोगों ने जो कर दिखाया वो तारीफे काबिल है। इस तालाब के निर्माण के बाद वैसे कई बार पहल हुई, लेकिन पहली बार इतने बड़े पैमाने पर नागरिकों के सहयोग से गीत भवन के एक छोर पर सफाई की गई।<span><br /></span></div><br /><br /><div><span>पूरे</span> <span>माह</span> चले <span>इस</span> <span>अभियान</span> <span>में</span> <span>हर</span> <span>वर्ग</span> <span>का</span> <span>जुड़ाव</span> <span>हुआ</span> <span>है।</span> <span>इससे</span> <span>लगता</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>उन्हें</span> <span>अपने</span> <span>इस</span> <span>प्राचीन</span> <span>तालाब</span> <span>की</span> <span>फिक्र</span> <span>तो</span> <span>है।</span> <span>सवेरे</span> <span>छह</span> <span>बजे</span> <span>से</span> <span>ही</span> <span>लोग</span> <span>इस</span> <span>तालाब</span> <span>पर</span> <span>जुट</span> <span>जाते</span> <span>और</span> <span>हाथों</span> <span>में</span> <span>फावड़े</span> <span>व</span> <span>तगारी</span> <span>उठाकर</span> <span>तालाब</span> <span>में</span> उतर<span><span> जाते।</span></span> <span>लगातार</span> <span>दो</span> <span>घंटे</span> <span>श्रमदान</span> <span>के</span> <span>बाद</span> <span>उन्हें</span> <span>जिस</span> <span>संतुष्टि</span> <span>का</span> <span>अहसास</span> <span>होता</span>, <span>उसे</span> <span>शायद</span> <span>उन्होंने</span> <span>पहले</span> <span>कभी</span> <span>अनुभव</span> <span>नहीं</span> <span>किया।</span> <span>ये</span> <span>तो</span> <span>एक</span> <span>बानगी</span> <span>भर</span> <span>है।</span> <span>ऐसे</span> <span>कई</span> <span>किशोर</span> <span>सागर</span> <span>तालाब</span> <span>इस</span> <span>देश</span> <span>में</span> <span>हैं</span>, <span>जिन्हें</span> <span>फिर</span> <span>से</span> <span>संवारा</span> <span>जाना</span> <span>चाहिए।</span> <span>जनता</span> <span>तो</span> <span>तैयार</span> <span>है</span>, <span>सवाल</span> <span>उन्हें</span> <span>जगाने</span> <span>भर</span> <span>का</span> <span>है।</span></div><br /><br /><div>जय श्रीकृष्णा</div></div></div>NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-85724859554803699162009-06-15T12:43:00.000-07:002009-06-15T13:02:48.981-07:00<a href="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/Sjakz4IjbfI/AAAAAAAAAB4/0BqwgSA2rDs/s1600-h/AZIZ+09+copy.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5347642818697588210" style="WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 94px" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/Sjakz4IjbfI/AAAAAAAAAB4/0BqwgSA2rDs/s400/AZIZ+09+copy.jpg" border="0" /></a><br />यह फोटो राजस्थान पत्रिका के बीकानेर के ख्यात छायाकार अजीज भुट्टो ने लिया था। संयोग से मुझे भी इस भयानक आंधी से रू-ब-रू होने का मौका मिला। धूल का ये गुबार जब मैं बीकानेर में था कोई तीन चार बार मुझ पर से निकला होगा। किसी अनजान को तो ये फोटो देख कर एसा लगता होगा कि शायद इसके बाद बचता क्या होगा। लेकिन एसा नहीं है। इस गुबार के निकलने के बाद होने वाली बारिश से एसा लगता है जैसे आप साबून से खूब मल मल कर नहाए हैं। ये मिट्टी प्रकृति से प्राप्त बेहतरीन आनन्द का आभास कराती है। जिसने इसे महसूस किया उसे ही इसका आभास हो सकता है। किसी बीकानेरवासी से ही पूछ कर महसूस किया जा सकता है। अप्रेल-मई-जून माह में बीकानेर में एसे दृश्य कई बार बनते हैं। ये पूरे शहर को अपनी आगोश में ले लेते है और फिर प्यार से दुलारते हैं और फिर उनके पीछे पीछे चल रहे बादल अमृत की फुहार से इन बीकानेरवासियों को किसी बच्चे की माफिक नहला जाते है और फिर आने का वादा कर लम्बे समय के लिए तरोताजा कर जाते हैं। सचमुच ये किसी आश्चर्य से कम नहीं है।<br />जयश्री कृष्णा, जय जगत्।NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-86530326559000340772009-06-15T12:15:00.000-07:002009-06-15T12:43:14.350-07:00एक अकेला इस शहर मेंप्रकृति चला कर कभी अन्याय नहीं करती। प्रकति का व्यवहार बिल्कुल जानवर की तरह समझा जा सकता है जो तब तक हमला नहीं करता, जब तक कि उसे छेड़ा न जाए। पिछले लम्बे समय से हम प्रकृति को न केवल छेड़ रहे हैं, बल्कि उसे बरबाद करने में भी नहीं हिचक रहे। यह जानते हुए भी कि इसके बिना हमारा है भी कौन। हम तो मिट्टी के पुतले है जो एक दिन इसी प्रकृति में समा जाने वाले है, फिर क्यों हम इतने क्रूर बने हुए हैं? क्यों नहीं हमारा दिल पसीजता? आखिर प्रकृति ने हमसे मांगा ही क्या है। हमेशा दिया ही दिया है। हम खुद भी उसी की देन हैं।<br /><br /><strong>एक परिवार की ताकत<span class=""></span></strong><br /><strong><span class=""></span></strong><br />एक परिवार या एक समूह की ताकत हमेशा विजयी पथ पर कायम रहती है। जैसे-जैसे इसके सदस्य कम होते जाते हैं, ताकत क्षीण होती जाती है। ठीक ये ही व्यथा पेड़ों की है। हम लगातार पेड़ों की ताकत कम करते जा रहे हैं। एक पेड़ ही नहीं, उनके पूरे के पूरे परिवार का खात्मा करते जा रहे हैं। एक अंधड़ का जब हमला होता है तो शृंखलाबद्ध खड़े पेड़ उसका मुकाबला करने में सक्षम होते हैं, लेकिन जैसे ही इस शृंखला को छेड़ा जाता है या उनके सदस्यों को कम करना शुरू कर दिया जाता है, उनकी ताकत कम होती जाती है। इसके बाद वे किसी अंधड़ का मुकाबला करने में सक्षम नहीं रहते। अभी हम देखते है कि थोड़ी बहुत आंधी भी एक भारी-भरकम पेड़ को धराशायी कर जाती है, जबकि शायद पहले एसा नहीं होता होगा। क्योंकि शृंखलाबद्ध खड़े पेड़ उन्हें बखूबी आगे खदेड़ देते थे या फिर उन्हें थमने को मजबूर कर देते रहे होंगे। इससे मानव जीवन भी सुरक्षित रहता रहा होगा। चूंकिः हमारे जीवन में इतने पेड़ दिखाई नहीं देते, लेकिन बड़े बुजुर्ग तो यही बताते हैं। विश्नोई समाज तो पेड़ों के लिए खुद का बलिदान करने को तत्पर रहता है। केवल वे ही क्यों, हम सभी क्यों नहीं मिल कर लड़ते इन पेड़ों को बचाने के लिए?<br />हमें कुछ तो करना ही होगा।<br />चलो यूं कर लें, घर के किसी कोने में एक छोटा सा पौधा लगाकर इस अभियान का आगाज कर लें,<br />जी, बिल्कुल आज से, अभी से ले सकते हैं एक नए परिवार के गठन का संकल्प। नया परिवार यानि पेड़ों का परिवार।<br />जयश्री कृष्णा। जय जगत्।NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-91821739218633703832009-06-11T08:25:00.000-07:002009-06-11T08:32:30.411-07:00<a href="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/SjEjCF233wI/AAAAAAAAABw/EsYDq3QIu3Y/s1600-h/lakepalace.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5346092751504531202" style="WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/SjEjCF233wI/AAAAAAAAABw/EsYDq3QIu3Y/s400/lakepalace.jpg" border="0" /></a><br />भरी हुई पिछोला झील में लेक पैलेस का नजारा कुछ और ही होता है।<br /><br /><a href="http://4.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/SjEiivjupZI/AAAAAAAAABo/GmGsHurTPhM/s1600-h/lackpalace.jpg"></a>NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-11179918839629323362009-06-11T08:09:00.000-07:002009-06-11T08:24:35.216-07:00<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5346090316862781522" style="WIDTH: 400px; CURSOR: hand; HEIGHT: 300px" alt="" src="http://3.bp.blogspot.com/_TnWkj45fqQ4/SjEg0YHC-FI/AAAAAAAAABg/PrVMcPKhnQ0/s400/lake+pichola.jpg" border="0" /><br />ये है उदयपुर की प्रसिद्ध पिछोला लेक। खाली झील में खड़ा लेक पैलेस कुछ कहना चाहता हो।NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-69320190012087344562009-06-10T09:31:00.000-07:002009-06-10T10:40:02.838-07:00अब तो रहम करो<span class=""></span><br /><span class=""></span><br /><span class=""></span><br />पूर्व का <strong><em>वेनिस</em></strong> कहो या <strong><em>झीलों की नगरी</em></strong> या जो आपको अच्छा लगे... कुछ भी कहो..<br />पर यह शहर है बड़ा खूबसूरत.... डेजर्ट इलाके का रहने वाला यह प्राणी जब इस शहर की तारीफें करता नहीं थकता है तो उदयपुर के लोग कहते हैं, असली उदयपुर तो आपने देखा ही कहां.<br /><br /><strong>ये वो शहर था-</strong><br /><br />- जहां कभी हरी-भरी वादियों में पर्यटक खोए रहते थे<br /><br />- जहां झीलें पानी से लबालब तो <span class="">रहती ही</span> थी- उनका पानी भी कांच की तरह साफ रहता <span class=""></span><br /><span class=""></span>- जहां इतने पेड़ थे कि उन्हें गिनना मुश्किल था<br /><span class=""></span>- जहां हर तरफ का साफ सुथरा वातावरण बरबस सभी को मोह लेता था<br />- जहां के लोग अपने शहर की सुंदरता बनाए रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे<br />- जहां की परम्पराएं इसकी खूबसूरती को और निखारती थी<br /><br />पुराने लोग और भी बहुत कुछ अपनी यादों को सहेजते हुए बताते हैं, सभी का उल्लेख यहां करना मुश्किल है। इतना कुछ बताने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि राजस्थान ही नहीं भारत की इस खूबसूरत विरासत को बचाना है तो कोई बड़ा कदम तो उठाना ही चाहिए। इतनी सारी बातें जानने के बाद तो मुझे यह लगता है कि यह उदयपुर तो वाकई उजड़ता जा रहा है। कहीं एसा न हो कि यहां की झीलें आस-पास की गंदगी को अपने में समाते हुए कूड़ेदान का रूप धारण कर ले। इन झीलों में पानी आने के प्राकृतिक रास्ते अतिक्रमण की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। हमने न केवल इन झीलों का दोहन किया, बल्कि इसमें गंदगी डालने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। और तो और, रही सही कसर पेड़ काटकर निकाल दी गई। यह जरूर है कि नए राजमार्ग इस शहर को मिले, लेकिन इनके लिए प्रकृति का विनाश अनुचित है। पेड़ कटे जो तो कटे, पहाड़ के पहाड़ काट डाले गए। जब ये पहाड़ कटे तो इनके मलबे में कई जलग्रहण <span class="">क्षेत्रों का नामोंनिशां मिट गया, जिन</span>से उदयपुर की झीलों की प्यास बुझती है।<br /><br /><span style="font-size:130%;">अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है -</span><br /><br />अभी भी बहुत कुछ हमारे हाथ में हैं। हम चाहे तो बहुत कुछ कर सकते हैं। मेरी तो सिर्फ एक ही इच्छा है, यहां के हर आदमी के हाथ से कम से कम एक पेड़ जरूर लगे। इसमें राजस्थान पत्रिका का हरयाळो राजस्थान अभियान मददगार साबित हो सकता है। फिर देखें कैसे हमारा उदयपुर वापस अपने उस स्वरूप में नहीं लौटता, जिसकी छवि हमारे पूर्वजों के दिलोंदिमाग से नहीं निकलती।<br /><br /><br />जयश्री कृष्णा।NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8818424853113617172.post-31591063357970577112009-06-04T11:04:00.000-07:002009-06-04T11:49:56.001-07:00प्रकृति और जीवनप्रिय दोस्तों,<br />मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत है, अभिनंदन है।<br />खासतौर से उनका जो प्रकृति से प्रेम करते हैं, उसका संरक्षण चाहते हैं।<br /><br />ब्लाग पर आने की बिल्कुल इच्छा नहीं हो रही थी, लेकिन न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि प्रकृति को बचाने के लिए क्यों न सुधि दोस्तों का एक समूह बनाया जाए, जो इसे बचाने का हर संभव प्रयास करते हों। मन में एक विश्वास था कि एक बार शुरुआत करके देखते हैं, कितने दोस्त जुट पाते हैं, जो इस प्रदूषित होते वातावरण से दुःखी है, जो चाहते हैं कि मनुष्य को ताजा श्वांस मिले, जो चाहते है कि कोई रोगी न हो, जो चाहते हैं कि कोई भी पेड़ कटने न पाए।<br />कोई वर्ष <span style="font-family:arial;">1</span>९८५ की बात है। मैं मेरे आदर्श डा एसएन सुब्बराव व नेमिचंद्र जैन भावुक के आह्वान पर बड़ौदा क्षेत्र के केवड़िया गांव में एक बांध क्षेत्र को हरा भरा बनाने के लिए वहां जुटे देश भर के करीब पच्चीस हजार लोगों के साथ शामिल हुआ था। वहां का माहौल देख कर मैं भाव विभोर था। वहां के प्राकृतिक सौंदर्य पर मैं फिदा हो गया था। उसके बाद मैने एक बार ठान ली कि क्यों न देश भर के एसे ही क्षेत्रों का दौरा किया जाए और कुछ एसे ही काम किया जाए। कालेज के छात्र थे, घूमने का आनन्द इस उम्र में कुछ अलग ही होता है, मुझ पर कुछ एसा ही भूत सवार था। फिर तो मैं मैसूर, उज्जैन, बंगलौर, मुंबई, मिर्जापुर समेत न जाने कितने शहरों में मैं घूमता रहा। वहां न केवल प्रकृति को मन में सहेजा, बल्कि भविष्य में भी इसी से जुड़े रहने का विचार बनाया। लेकिन परिवार की जिम्मेदारी के चलते एसा संभव नहीं हो सका।<br />करीब पच्चीस साल हो चुके हैं। मेरे मन में आज भी उस समय की सच्चे मन में सहेजी हुई बात जिंदा है, जो हर वक्त कुछ न कुछ करने के लिए प्रेरित करती है। जीवन व परिवार चलाने के लिए कई नौकरियां की... लेकिन प्रकृति को सहेज कर रखने की बात ने मेरा हाथ थामे रखा... जहां भी मैने काम किया... अनायास ही कोई न कोई काम मेरे हिस्से में आता चला गया और मैं प्रकृति का सान्निध्य पाता गया। प्रकृति की गोद में रहने का आनन्द हर किसी को नसीब नहीं होता। जब भी मौका मिले हमें नहीं छोड़ना चाहिए।<br />किस्मत भी देखिए, मुझे दोस्त भी मिले तो एसे जो प्रखर प्रकृति प्रेमी हैं। जिन्होंने मुझे कभी इससे दूर न होने दिया। नौकरियां भी मिली तो एसी कि मेरे हाथ में एसे काम अपने आप आते गए।<br />राजस्थान पत्रिका के साथ जुड़ने के बाद मैं जोधपुर व उसके बाद बीकानेर, भोपाल व अब बेहद ही खूबसूरत शहर उदयपुर में हूं। इसे मेरा सौभाग्य नहीं मानेंगे तो और क्या मानेंगे। यहां भले ही मैं अपना अधिकांश समय परिस्थितवश एक चैम्बर में गुजारता हूं, लेकिन जितना समय भी मुझे मिलता है मैं प्रकृति की गोद में लुढ़कने की कोशिश करता हूं।<br />ईश्वर मुझे शक्ति दे कि मैं किसी न किसी तरह प्रकृति की सेवा करता रहूं। आप सभी दोस्तों का सहयोग तो मिलेगा ही।<br />शेष अगली बार...<br />जय जगत, जय श्रीकृष्णा।<br /><span class=""></span>NATUREhttp://www.blogger.com/profile/07380335869296854492noreply@blogger.com3