प्रकृति चला कर कभी अन्याय नहीं करती। प्रकति का व्यवहार बिल्कुल जानवर की तरह समझा जा सकता है जो तब तक हमला नहीं करता, जब तक कि उसे छेड़ा न जाए। पिछले लम्बे समय से हम प्रकृति को न केवल छेड़ रहे हैं, बल्कि उसे बरबाद करने में भी नहीं हिचक रहे। यह जानते हुए भी कि इसके बिना हमारा है भी कौन। हम तो मिट्टी के पुतले है जो एक दिन इसी प्रकृति में समा जाने वाले है, फिर क्यों हम इतने क्रूर बने हुए हैं? क्यों नहीं हमारा दिल पसीजता? आखिर प्रकृति ने हमसे मांगा ही क्या है। हमेशा दिया ही दिया है। हम खुद भी उसी की देन हैं।
एक परिवार की ताकत
एक परिवार या एक समूह की ताकत हमेशा विजयी पथ पर कायम रहती है। जैसे-जैसे इसके सदस्य कम होते जाते हैं, ताकत क्षीण होती जाती है। ठीक ये ही व्यथा पेड़ों की है। हम लगातार पेड़ों की ताकत कम करते जा रहे हैं। एक पेड़ ही नहीं, उनके पूरे के पूरे परिवार का खात्मा करते जा रहे हैं। एक अंधड़ का जब हमला होता है तो शृंखलाबद्ध खड़े पेड़ उसका मुकाबला करने में सक्षम होते हैं, लेकिन जैसे ही इस शृंखला को छेड़ा जाता है या उनके सदस्यों को कम करना शुरू कर दिया जाता है, उनकी ताकत कम होती जाती है। इसके बाद वे किसी अंधड़ का मुकाबला करने में सक्षम नहीं रहते। अभी हम देखते है कि थोड़ी बहुत आंधी भी एक भारी-भरकम पेड़ को धराशायी कर जाती है, जबकि शायद पहले एसा नहीं होता होगा। क्योंकि शृंखलाबद्ध खड़े पेड़ उन्हें बखूबी आगे खदेड़ देते थे या फिर उन्हें थमने को मजबूर कर देते रहे होंगे। इससे मानव जीवन भी सुरक्षित रहता रहा होगा। चूंकिः हमारे जीवन में इतने पेड़ दिखाई नहीं देते, लेकिन बड़े बुजुर्ग तो यही बताते हैं। विश्नोई समाज तो पेड़ों के लिए खुद का बलिदान करने को तत्पर रहता है। केवल वे ही क्यों, हम सभी क्यों नहीं मिल कर लड़ते इन पेड़ों को बचाने के लिए?
हमें कुछ तो करना ही होगा।
चलो यूं कर लें, घर के किसी कोने में एक छोटा सा पौधा लगाकर इस अभियान का आगाज कर लें,
जी, बिल्कुल आज से, अभी से ले सकते हैं एक नए परिवार के गठन का संकल्प। नया परिवार यानि पेड़ों का परिवार।
जयश्री कृष्णा। जय जगत्।
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